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एकांत

Updated: Oct 30

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ये भीड़,

एक शोर एक मेला।


मैं,

अपने एकांत का,

विस्तार सुनाता हूँ।


सांसारिक उपद्रव।

ग़ुबार,

उड़ता,

फिरता ।

मैं,

इन आँखों को 

बंद रख 

धूल से बचाता हूँ।


जीवन सुंदर,

पर उसकी छाया?

कौन देखे,

कौन पहचाने,

कौन थामे?


मेरी छाया?

मैं उसे,

गले लगाता हूँ।

और,

कोने में,

खुद को,

छुपा हुआ पाता हूँ।


महफ़िल।

शराब।

मधुशाला।

मन कहता,

रुक!

कहाँ जा रहा है?

जीवन का उत्सव,

कठपुतली का नृत्य,

और नाच, और पी।


अब,

रस में रास नहीं।

हर स्वास में,

बंधन टूटता है।


मैं,

एकत्व में,

ठहराव में,

अपने को

समाता हूँ।


ख़ुद को,

दुनिया से,

मैं,

बहुत,

बहुत,

दूर खड़ा पता हूँ।

 
 
 

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